आवारा हूँ - भाग(१) Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आवारा हूँ - भाग(१)

आज बारहवीं का रिजल्ट निकला है और दीपक अपने स्कूल में अव्वल आया है, ये खुशखबरी वो अपनी विधवा माँ और विधवा दादी को बताने घर की ओर दौड़ा चला आया लेकिन तभी उसने दरवाजों के बाहर से सुना कि उसकी दादी और माँ आपस में झगड़ रहें हैं....
यूँ तो उसकी दादी शकुन्तला और माँ शान्ति के बीच हमेशा झगड़ा होता है लेकिन आज उन दोनों की बात सुनकर दीपक के पैरों तले जमीन खिसक गई.....
तू मेरे बेटे को खा गई और तू ही मेरे पति को भी खा गई,डायन कहीं की,शकुन्तला बोली।।
मैने कुछ नहीं किया,मेरी मजबूरी का फायदा तो तुम्हारे पति ने उठाया था,शान्ति बोली।।
कौन सी मजबूरी? उसके बदले में तुझे कुछ दिया भी तो है,शकुन्तला बोली।।
वो भी तुमने और तुम्हारे पति ने मुफ्त नहीं दिया उसकी भी कीमत चुकाई है मैने,शान्ति बोली।।
शुकर मना कि तुझसे मैने अपना बेटा ब्याह लिया ,कुछ नहीं था तेरे भिखमंगे बाप के पास ,कैसे ब्याहता तुझे,शकुन्तला बोली।।
हाँ,तो मेरे बाप से मेरा सौदा करके अपने पागल बेटे का मुझसे ब्याह करा दिया और मेरी जिन्द़गी बर्बाद कर दी,शान्ति बोली।।
बर्बाद नहीं हुई है तेरी जिन्द़गी,मेरे पति की वजह से ही तेरी गोद में दीपक आया था नहीं तो .....इतना कहते कहते शकुन्तला चुप हो गई.....
नहीं तो क्या? बाँझ ही रह जाती ना! और क्या होता? तेरे पति ने जो मेरी दुर्गति की थी ना ! वो मैं ही जानती हूँ,वो तो मर कर चला गया और छोड़ गया तुझे मेरी जान खाने के लिए,हवसी कहीं का अपनी बहु को भी नहीं छोड़ा उसने,शान्ति बोली।।
ए..मेरे पति को मत कोस,शकुन्तला बोली...
तो क्या करूँ? शान्ति बोली...
दोनों की बातें अभी खतम भी ना हुईं थीं कि दीपक भीतर जा पहुँचा,उसे देखकर दोनों सन्न रह गईं....
जो मैने सुना ,क्या वो सच है? दीपक ने दोनों से पूछा।।
और दोनों कुछ ना बोल सकीं....
जब दोनों कुछ ना बोलीं तो दीपक उसी वक्त घर से बाहर चला गया,दिनभर सड़कों पर भटकता रहा लेकिन घर ना गया,उसे ना तो भूख लग रही थी और ना प्यास ,उसका दिमाग़ एकदम शून्य हो चुका था उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करें? इतनी कम उम्र में जिन्द़गी ने उसे कहाँ लाकर खड़ा कर दिया था,उसकी माँ ने इतनों सालों ये बात सबसे छुपाकर रखी....छी..छी...मुझे खुद से घिन आ रही है कि मैं ऐसी माँ का बेटा हूँ,लेकिन इसमें माँ का भी क्या दोष? हो सकता है कि उसकी भी कोई मजबूरी रही हो,दीपक ने मन में सोचा।
चलते चलते और अपनी जिन्द़गी के बारें में सोचते सोचते दीपक रेलवे स्टेशन तक आ पहुँचा,तभी एक नल पर जाकर उसने अपना मुँह धोकर पानी पिया और प्लेटफार्म पर आकर एक बेंच पर बैठ गया....
आज उसे अपनी जिन्द़गी का फैसला खुद करना था कि वो अब क्या करेगा?अब उसे प्लेटफार्म पर बैठे बैठे शाम हो चली थी,उसके दिमाग़ ने अब काम करना बंद कर दिया था,अब उसे भूख का अनुभव हो रहा था,उसने अपनी जेब टटोली तो उसमें से पच्चीस रूपए निकल आए,
वो प्लेटफार्म के बाहर आया,उसने एक चाय की दुकान पर जाकर दो समोसे और एक चाय खरीदी,समोसे खाकर और चाय पीकर उसे कुछ राहत महसूस हुई,वो फिर प्लेटफार्म पर आया और एक बेंच पर बैठ ,बैठे बैठे उसने प्लेटफार्म की घड़ी में देखा जो आठ बजा रही थी,
तभी प्लेटफार्म पर एक ट्रेन आकर रूकी और वो उसमें जाकर बैठ गया,उसे सीट नहीं मिली क्योंकि वो रिजर्वेशन वाली वोगी थी,किसी ने उसे बैठने नहीं दिया,आज से पहले उसने कभी ट्रेन का सफर नहीं किया था इसलिए उसे उसके नियम कायदे पता नहीं थे।।
जब कहीं जगह ना मिली तो वो थकहार कर टाँयलेट के पास पड़ी खाली जगह पर आकर बैठ गया,जहाँ गेट से हवा आ रही थी,वो वही टेक लगाकर बैठा ही था कि गेट से आती ठंडी हवा ने उसे थपकी दी और वो सो गया।।
थोड़ी देर में उसे किसी ने जगाया,वो गहरी नींद में था जब वो नहीं जागा तो उसने उसे पैर मारते हुए पूछा...
कहाँ जाना है? टिकट कहाँ है तेरा?
शायद वो टी सी था,लेकिन उसके सवालों का उसके पास कोई भी जवाब नहीं था,क्योंकि उसे खुद पता नहीं था कि उसे कहाँ जाना है,तब उसने टी सी से कहा.....
मेरे पास टिकट नहीं है....
तो मुफ्त में सफ़र करेंगा,ये ट्रेन तेरे बाप की है क्या?टी सी बोला।।
बाप का नाम सुनकर ना जाने दीपक को क्या हो गया? और वो चीखते हुए बोला....
ए...बाप पर मत जा...
अच्छा! एक तो बिना टिकट सफ़र करता है और ऊपर से चीखता है,अभी जेल भेजता हूँ बच्चू ! सारी हेकड़ी निकल जाएगी,टी सी बोला।।
तभी एक सज्जन व्यक्ति टी सी के पास आए और पूछा....
क्या बात है? टी सी साहब!
देखिए ना ये आवारा लड़का,बिना टिकट सफ़र कर रहा है और टिकट का पूछा तो मेरे ऊपर चीख रहा है,टी सी बोला।।
कितना किराया होता है,मैं आपको पैसे देता हूँ इसका टिकट वहाँ तक का बना दीजिए,जहाँ तक ये ट्रेन जाती है,वे सज्जन बोले।।
आप कहते हैं तो ठीक है, नहीं तो ऐसे आवारा लोगों को तो जेल भेज देना चाहिए,टी सी बोला।।
और टी सी ने दीपक का टिकट बना दिया,तब उन सज़्जन ने दीपक से कहा....
मैं धनपत राय और तुम्हारा नाम नाम क्या है?
जी,मैं दीपक! ,दीपक बोला।।
कहाँ जा रहे हो?धनपत राय ने पूछा।।
जी,पता नहीं,कुछ मालूम नहीं मुझे कि कहाँ जाना है? दीपक बोला।।
ये कैसी बातें कर रहे हो बेटा! लगता है कोई बात हुई है तुम्हारी जिन्द़गी में जिससॆ तुम इतने परेशान हो,धनपत राय जी बोले।।
जी,मुझे अभी कुछ नहीं बताना,मैं अपनी पुरानी जिन्द़गी को भूल जाना चाहता हूँ,दीपक बोला।।
ठीक है बेटा! चलो नहीं पूछता, लेकिन अब क्या करोगे? धनपत राय जी ने पूछा।।
जी,कुछ सोचा नहीं अब तक,दीपक बोला।।
अच्छा! मेरे साथ चलोगे,धनपत राय जी ने पूछा।।
जी,मुझ अन्जान को आप अपने साथ क्यों ले जाना चाहते हैं? दीपक ने पूछा।।
मुझे तुम भले से लगें इसलिए पूछ लिया ,तो बताओ चलोगे मेरे साथ,धनपत राय जी ने फिर से पूछा।।
जी! अब मैं क्या बोलूँ? दीपक बोला।।
तो मैं तुम्हारी हाँ समझूँ,धनपत राय जी बोले।।
अब मेरे पास कोई और रास्ता भी तो नहीं है जो मैं ना बोलूँ,दीपक बोला।।
अच्छा! ये बताओ पढ़े लिखें हो,धनपत राय जी ने पूछा।।
जी !बारहवीं पास हूँ,दीपक बोला।
तब तो बहुत बढ़िया,धनपत राय जी बोले।।
और उस रात दोनों के बीच ऐसे ही बातें होतीं रहीं,धनपत राय जी दीपक को लेकर अपने घर पहुँचें तो उसे पता चला कि उनकी पत्नी बहुत पहले ही गुजर चुकीं हैं और उनकी एक बेटी है जो उसकी हमउम्र है और उसका नाम नैनसी है,उसने ही दीपक को खाना परोसा और धनपतराय जी ने उसे सर्वेंट्स क्वाटर में रहने की जगह दे दी।।
धनपत राय जी फूलों की कई नर्सरीज थीं,वो अलग अलग फूलों के पौधे भी बेचते थे और फूलों का व्यापार भी करते थे और उन्होंने अपनी एक नर्सरी में दीपक को भी लगा दिया।।
दीपक का भी वहाँ मन लग गया,दिन भर नर्सरी में ब्यस्त रहता और शाम को धनपत राय जी उससे कुछ बातें करता और वो खा पीकर सो जाता,इसी तरह दिन बीतते रहें अब दीपक को वहाँ रहते दो साल होने को आए थे,सब कुछ ठीक ही चल रहा था .......
लेकिन एक शाम को नैनसी रसोई में खाना बना रही थी और धनपतराय शाम की चाय पीकर घर के लाँन में टहल रहे थे,दीपक अपने क्वाटर में था तभी नैनसी जोर से चिल्लाई....
तभी धनपत राय जी ,दीपक को आवाज देते हुए रसोई की ओर भागे,उन्होंने सोचा कि ना जाने क्या हो गया जो नैनसी ऐसे चिल्लाई....
धनपतराय जी ने रसोई में जाकर देखा कि नैनसी जमीन में गिरी पड़ी है और आपना पैर पकड़कर जोर से कराह रही है,
शायद वो स्टूल पर चढ़कर ,ऊपर की अलमारी से राशन का कोई डिब्बा निकाल रही होगी,संतुलन बिगड़ते ही नींचे गिर पड़ी,उसे जमीन से उठाकर बिस्तर तक गोद में ले जाना धनपत राय जी के बस में नहीं था इसलिए उन्होंने दीपक से कहा....
खड़े क्या हो ? उठाओ इसे और बिस्तर तक ले चलो ,मैं तब तक डाक्टर को फोन करता हूँ...
और दीपक ने ऐसा ही किया,उसे नैंनसी को अपनी बाँहों में उठाने में कुछ अजीब तो लग रहा था लेकिन मजबूरी थी,मालिक का हुकुम जो था।।
कुछ देर में डाक्टर आएं उन्होंने नैनसी के पैर का चेकअप किया,दर्द का इन्जेक्शन लगा दिया और बोले ....
मेरे ख्याल से मोच आई है,जब दर्द हो तो ये दवाई दे दीजिएगा और कल क्लीनिक आकर एक्सरे करवा लीजिए तो पता चल जाएगा कि क्या परेशानी हुई है?
फिर धनपत राय जी डाक्टर की फीस देते हुए बोले...
ठीक है डाक्टर साहब! बहुत बहुत शुक्रिया,चलिए मैं आपको आपकी गाड़ी तक छोड़ देता हूँ.....
धनपतराय जी जैसे ही डाक्टर साहब को छोड़कर आए तो बोले.....
चलो,अब नैनसी की हालत तो ठीक नहीं है इसलिए मैं बाहर से खाना लेकर आता हूँ।।
तभी दीपक ने धनपत राय जी को रोकते हुए कहा.....
रहने दीजिए चाचा जी! मुझे खाना बनाना आता है,जब तक छोटी मालकिन ठीक नहीं हो जातीं , घर की साफ सफाई और खाने की जिम्मेदारी मेरी।।
धनपत राय जी दीपक की बात सुनकर बोले....
ये तो बहुत बढ़िया है तो भाई लग जाओ फिर रसोई में रात के खाने के लिए.....
और उस दिन खुशी खुशी दीपक ने खाना बनाया और वो नैनसी को भी खाना देने उसके कमरें में गया,धनपत राय जी दीपक के हाथों का खाना खाकर बोले....
वाह....क्या जायकेदार खाना बनाया है?
और उस दिन के बाद दीपक घर पर ही रहकर नैनसी की देखभाल करता और घर के काम सम्भालता,नैनसी का एक्सरे हुआ तो पता चला कि हड्डी नहीं टूटी है लेकिन मोच जबरदस्त आई है और उसे कम से कम पन्द्रह दिन के आराम की जरूरत है....
अब दीपक ही नैनसी के खाने पीने और दवाई का ख्याल रखता क्योंकि धनपत राय जी तो अपनी नर्सरी चले जाते,नैनसी की मोच अब ठीक हो चली थी,इस तरह नैनसी का ख्याल रखतें रखते कब नैनसी के दिल में दीपक के लिए प्यार पनप गया ये उसे पता ही नहीं चला.....
वो दीपक को बस ऐसे ही निहारा करती इधर दीपक, नैनसी के दिल के हाल से बेखब़र था,उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि नैनसी उसे चाहने लगी है ...
और एक शाम अपने दिल के हाथों मजबूर होकर नैनसी ने अपने दिल का हाल दीपक से बयाँ कर ही दिया....
ये सुनकर दीपक बोला....
ये आप क्या कहतीं हैं छोटी मालकिन! आप मुझसे प्यार कैसें कर सकतीं हैं? मैं एक आवारा लड़का हूँ आपके पिता ने मुझे इस घर में आसरा दिया है,मैं ये सब करके उनको धोखा नहीं दे सकता।।
लेकिन मैं भी मजबूर हूँ,मैं तुम्हें पसंद करने लगी हूँ,नैनसी बोली।।
लेकिन मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकता,दीपक बोला।।
और उन दोनों की ये बातें धनपतराय जी ने सुन लीं और धनपत राय केवल इतना ही कह पाए....
नैनसी....!
दीपक तुम अपने क्वाटर में जाओ और उस घटना के बाद धनपत राय जी को एहसास हो गया कि अब नैनसी बड़ी हो चुकी है और आनन-फानन में उन्होंने नैनसी का ब्याह तय कर दिया.....
नैनसी, धनपतराय जी के सामने रोई और गिड़गिड़ाई लेकिन उन्होंने नैनसी की एक ना सुनी....
विवाह का दिन भी नजदीक आ गया,दीपक ही ब्याह के सारे काम सम्भाल रहा था,शादी के एक रात पहले नैनसी के हाथों में मेंहदी रची,उसकी सहेलियाँ उसे मेंहदी लगाकर चली गई.....
तब नैनसी ने दीपक से कहा....
मै कल चली जाऊँगी तो क्या आज रात छत पर चलकर हम कुछ बात कर सकते हैं?
दीपक बोला....
ठीक है लेकिन तुमने अभी खाना भी तो नहीं खाया....
लेकिन मेरे हाथों में तो मेंहदी लगी है,नैनसी बोली...
तो चलो आज मैं तुम्हें खाना खिला देता हूँ,दीपक बोला।।
तो चलो मैं छत पर जाती हूँ,तुम खाना लेकर आ जाओ...नैनसी बोली।।
और दीपक छत पर खाना लेकर पहुँचा ,वहाँ चारपाई बिछाकर वो बोला....
लो तुम इस पर बैठ जाओ,मै तुम्हें खाना खिला देता हूँ..
दीपक ,नैनसी को खाना खिलाने लगा और नैनसी उसे बड़े प्यार से देखती जाती,फिर नैनसी बोली....
तुम भी तो खाओ...
मैं बाद में खा लूँगा,पहले तुम खा लो,दीपक बोला....
सच बताओ क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करते,नैनसी ने दीपक से पूछा....
प्यार करता हूँ....मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ....उस दिन मुझे पता चल गया था कि चाचा जी आ गए है इसलिए नहीं कह पाया और ये कहकर दीपक फूट फूटकर रो पड़ा....
मुझे पता था दीपक ,मैने तुम्हारी आँखों में देखा था,नैनसी बोली....
लेकिन अब कोई फायदा नहीं छोटी मालकिन ,अब तुम अपने ससुराल राजी खुशी जाओ,दीपक बोला....
तो तुम्हें मेरी याद आएगी...नैनसी ने पूछा....
बहुत याद आएगी,दीपक बोला।
दीपक! मैं भी तुम्हें कभी ना भूल पाऊँगीं और मेरे जाते ही तुम कोई अच्छी सी लड़की देखकर शादी कर लेना,नैनसी बोली।
लेकिन तुमसे अच्छी मुझे कहाँ मिलेगी? दीपक बोला।।
तो तुम मुझे अपना क्यों नहीं लेते? मैं तुम्हारे लिए सबकुछ छोड़ सकती हूँ,नैनसी बोली।।
ये नहीं हो सकता,मैं तुम्हारे पिता को सच में धोखा नहीं दे सकता,दीपक बोला।।
और दोनों कुछ देर ऐसे ही छत की खुली हवा मे अलग अलग चारपाई पर बिना बात किए आँखों से आँसू बहाते हुए लेटे रहें....
सुबह हुई....
काफी देर हो गई लेकिन नैनसी अभी तक अपने कमरे से ना निकली थी,शादी का घर था तो और भी काम पड़े थे,धनपतराय जी ने नैनसी को उसके कमरें के पास जाकर पुकारा....
लेकिन नैनसी ने दरवाजा नहीं खोला....
धनपत राय जी घबरा गए और उन्होनें दरवाजे को तुड़वा दिया.....
नजारा देखकर वो रो पड़े,बिस्तर पर नैनसी का मृत शरीर पड़ा था और उसके मुँह से झाग निकल रहा था ऐसा लग रहा था कि उसने जहर खा लिया था....
बगल में एक चिट्ठी पड़ी थी और उसमें लिखा था कि .....
माफ कीजिए पापा ! मै आपकी पसंद से शादी नहीं कर सकती,इसलिए मैं अपना ये जीवन उस को अर्पण करती हूँ जिससे मैं प्यार करती हूँ....
ये देखकर दीपक को घहरा सदमा लगा और वो उसी वक्त धनपत राय जी के घर से भाग गया,भागकर वो एक दिन के सफर के बाद अपने घर पहुँचा तो उसे पता चला कि जिस रात वो घर से भागा था उसी रात उसकी माँ ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी और कुछ महीनों बाद उसकी दादी भी चल बसी.....
अब तो दीपक की जिन्द़गी में सिवाय अँधेरे के कुछ नहीं बचा था,उसने अब अपनी जिन्द़गी दाँव पर लगा दी,अब वो सारे बुरे काम करने लगा जो उसने कभी सोचे भी नहीं थे,शराब पीना ,चोरी करना,जुआँ खेलना ऐसा कोई भी बुरा काम नहीं बचा था जो उसने ना किया हो....
अब वो बिल्कुल आवारा बन चुका था,जिन्द़गी से हारा हुआ इन्सान जो अब खुशी चाहता ही नहीं था,अब उसे सब दीपक नही आवारा बुलाने लगें थे,वो आप बुरे लोगों का भाड़े का गुण्डा बनकर रह गया था,दिनभर शराब के नशे में किसी भी अड्डे पर पड़ा रहता,किसी को मारने पीटने का काम करने पर अगर कुछ रूपये मिल जाते तो उसे एक ही पल में शराब पर खर्च कर देता....
उसे ये लगता था कि उसकी माँ और नैनसी की मौत का केवल वो ही जिम्मेदार है इसलिए केवल खुद को सज़ा दिए चला जा रहा था.....
क्योंकि उसे कोई ये बताने वाला नहीं था कि वो बेगुनाह है,बेकार में वो पाश्चाताप की आग में जल रहा है,कोई ऐसा नहीं था कि उसकी जिन्द़गी में एक उम्मीद की लौ जला सकें.....
तभी उसे जग्गू दादा ने एक काम सौंपा,जग्गू दादा ने आवारा से कहा.....
आवारा! एक काम है!
बोलो दादा! क्या करना होगा? आवारा ने पूछा।।
एक लड़की को उठाना है,जग्गू दादा बोला....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....